के साथ चलती हैं वो
अपने कार्यस्थल पर
आकर्षक ,अनुकरणीय है
उनका व्यक्तितंव !
प्रिय हैं
सहयोगियों की
पर देखा है मैंने
उनके आत्मविश्वास भरे क़दमों को
डगमगाते
उनके अपने ही घर
और घरेलू रजनीति के
दाव पेंचो की भूल भुलैया में!
क्या लौह मस्तिष्क है उनका?
सहती रहती हैं
अकर्मण्य पति की दहाड़
सास की चिंघाड़
देवरों और ननदों के व्यंग बाण
बच्चों की चिल्लपों
इन तथा कथित सगे लोगो पर
हवं हो जाती है
हर महीने की पगार
वो चुप रहती हैं
कि भंग न हो
घर की तथा कथित शांति
भले ही उनका हृदय
करता हो चीत्कार
बहुत सुंदर रचना। ऐसी रचनाएं कभी कभी पढने को मिलती हैं।
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी.कार्यशील महिलाओं की इस विडम्बना को मैंने बहुत नजदीक से देखा है.समाज की मनोवृत्ति में अभी बहुत परिवर्तन आवश्यक है .
ReplyDeleteसच जिस घर में राजनीति घुस जाती है उस घर में एक नारी की क्या दशा होती है उस पीड़ा को आपने बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है, कार्यशील महिलाओं को किस प्रकार घर और दफ्तर देखना होता है यह हम सभी कामकाजी महिलाएं अच्छी तरह समझ सकते है लेकिन जिन लोगों को घर में समझना चाहिए जब वे नहीं समझ पाते हैं तो सच मन चीत्कार करता है, जो घर की शांति कहीं भंग न हो यह सोच कहीं किसी कोने में दबी रह जाती है .....
ReplyDeleteसुन्दर सार्थक प्रस्तुति के लिए आभार..
धन्यवाद कविता जी.कभी कभी मैं महसूस करती हूँ की नारी का दोहरा शोषण हो रहा है.पुरुषप्रधान समाज में कार्यशील महिलाओं से अभी भी पुरानी अपेक्षाएं ही की जाती हैं.मंजुश्री
ReplyDeleteबेहतरीन ...सशक्त लेखन......
ReplyDeleteएक नारी होने के नाते आपकी भावाव्यक्ति को नमन करती हूँ....
अनु
बहुत बहुत धन्यवाद अनु जी.मेरे अनुभव ही मेरी कलम में उतरते हैं.यह नारी की विडम्बना है कि उसे दोहरा जीवन जीना पड़ता है .मंजुश्री
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