मिला था मुझे
कितना मजबूत स्कंध
मर्यादा पुरोषोत्तम श्री राम का
चाहे फूलो की शैय्या हो
या काँटों की राह
मैं तो थी उनकी
मूक अनुगामिनी
किन्तु शोक
छलनामय पुरुष
साधुवेश में
कैसे न हो विश्वास
हर ली गयी
'फिर भी मन में थी ये आस
मेरे स्वामी निश्चय ही
उबारेंगे मुझे इस शोक से
करती रही अश्रु सिंचित प्रतीक्षा
सुदीर्घ समय
कट गया
राम आये
मुझे उबारा
किन्तु पुरुष !
छलनामय ही रहा
या मैं ही करती रही
भोला विश्वास
क्यों लांछन मेरे सतीत्व पर?
राम की मर्यादा या अहम्
ऊंचे उठ गए
मेरी निष्ठां ,पवित्रता और मूक प्रतीक्षा से
ली अग्नि परीक्षा
फिर भी मिला मुझे वनवास
यही था मेरे लिए नियति का उपहार
युग बीत गए
आज भी सीतायें
देती जा रही हैं अग्नि परीक्षा
गर्भ से मृत्यु पर्यंत.....
जाने कब बदलेगा ये समाज!
समाज तब बदलेगा जब सीता इनकार करेगी अग्नि-परीक्षा देने से....
ReplyDeleteबहुत ही सशक्त रचना.........
बधाई!!!
धन्यवाद संजय जी.कविताओं की प्रशंसा के लिए भी और मेरे ब्लॉग को ज्वाइन करने के लिए भी.ब्लॉग्गिंग का अनुभव मेरे लिए नया है.यदि कुछ प्रक्टिकल टिप्स दे सकें तो आभारी होउंगी.मंजुश्री
Deleteधन्यवाद
Deleteसार्थक व सटीक लेखन ...
ReplyDeleteधन्यवाद..... ब्लॉग विश्व से सकारात्मक प्रतिक्रिया पाना अच्छा लग रहा है.
Deleteबहुत सुन्दर प्रेरक प्रस्तुति
ReplyDeleteसदियों से यूँ ही चलता आ रहा है ..और आज भी कम कहाँ हुआ है..
सीता के धनुर्विद्या की बात भले ही न हो लेकिन उसकी विवशता का रूप आज भी हर जगह समाज में व्याप्त है ..