Thursday, March 8, 2012

सीता की व्यथा


मिला था मुझे 
 कितना मजबूत स्कंध 
मर्यादा पुरोषोत्तम श्री राम का 
चाहे फूलो की शैय्या हो 
या काँटों की राह
मैं तो थी उनकी 
मूक अनुगामिनी
किन्तु शोक
छलनामय पुरुष
साधुवेश में 
कैसे न हो विश्वास 
हर ली गयी
'फिर भी मन में थी ये आस
मेरे स्वामी निश्चय ही 
उबारेंगे मुझे इस शोक से
करती रही अश्रु सिंचित प्रतीक्षा
सुदीर्घ समय 
कट गया
राम आये 
मुझे उबारा 
किन्तु पुरुष !
छलनामय ही रहा 
या मैं ही करती रही 
भोला विश्वास
क्यों लांछन मेरे सतीत्व पर?
राम की मर्यादा या अहम्
ऊंचे उठ गए
मेरी निष्ठां ,पवित्रता और मूक प्रतीक्षा से
ली अग्नि परीक्षा
फिर भी मिला मुझे वनवास
यही था मेरे लिए नियति का उपहार
युग बीत गए
आज भी सीतायें
देती जा रही हैं अग्नि परीक्षा 
गर्भ से मृत्यु पर्यंत.....
जाने कब बदलेगा ये समाज!



6 comments:

  1. समाज तब बदलेगा जब सीता इनकार करेगी अग्नि-परीक्षा देने से....

    बहुत ही सशक्त रचना.........
    बधाई!!!

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    1. धन्यवाद संजय जी.कविताओं की प्रशंसा के लिए भी और मेरे ब्लॉग को ज्वाइन करने के लिए भी.ब्लॉग्गिंग का अनुभव मेरे लिए नया है.यदि कुछ प्रक्टिकल टिप्स दे सकें तो आभारी होउंगी.मंजुश्री

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  2. सार्थक व सटीक लेखन ...

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    1. धन्यवाद..... ब्लॉग विश्व से सकारात्मक प्रतिक्रिया पाना अच्छा लग रहा है.

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  3. बहुत सुन्दर प्रेरक प्रस्तुति
    सदियों से यूँ ही चलता आ रहा है ..और आज भी कम कहाँ हुआ है..
    सीता के धनुर्विद्या की बात भले ही न हो लेकिन उसकी विवशता का रूप आज भी हर जगह समाज में व्याप्त है ..

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