वसुंधरा या द्रौपदी ?
मैं -
पृथ्वी,भू,वसुंधरा!
जो करती तेरा पालन पोषण
नहीं ,
तूने तो बना दिया है मुझे द्रौपदी !
दु शासन और दुर्योधन की तरह
करते मेरी मर्यादा का क्षरण
मेरे वस्त्रों -
वृक्षों ,खेतों ,जंगलों को
काट -
निरंतर करते
मेरा चीर हरण !
यह भी नहीं सोचते
जीव जंतु क्या खायेंगे
कहाँ लेंगे शरण ?
अपनी अनंत प्यास को बुझाने
मेरे नयन नीर का
निरंतर करते दोहन शोषण
विकास के नाम पर
कोई कसार नहीं छोड़ी तूने
नष्ट किया पर्यावरण !
रे मनुज!
अपनी क्र्रूर हरकतों से
बाधा दिया है ताप तूने
मेरे मस्तिष्क का
अब जल तू स्वयं ही
झेल वैश्विक ऊष्मीकरण !
आशा नहीं अब मुझे
कि मुझे बचाने आयेगा
कोई कृष्ण स्वयं किया है मैंने
प्रतिशोध का वरण
खोल ली है केश राशि
तू देख मेरा विकराल रूप!
हाँ महाभारत !अकाल ,बढ़ ,प्रलय
ज्वालामुखी विस्फोट
सुनामी केदारनाथ धाम विभीषिका !
अब कोई रोक नहीं सकता तुझे
तेरे पापों का दंड भोगने से
रे स्वार्थी मनुज !
तेरा अब होगा मरण
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