Wednesday, November 6, 2013

द्वद्व या दम्भ?


 शहर के व्यस्तम चौराहे पर
लालबत्ती के हरे होने का इंतजार
रूकी हुयी कार..............
खिड़की के बंद शीशे के आर-पार
अचानक उभरता है एक चेहरा
नही दो चेहरे..............
एक दुर्बल कृशकाय नार..............
पहने कपडे़ तार-तार..............
और गोद में बच्चा
रोता जार-जार ,टपकाता हुआ लार !
हाथ फैलाये मिन्नतें करती हजार !
पत्नी से मैं कहता हूॅ..............
इन्हें कुछ दे देते है यार !
पत्नी ने आंखे तरेरी..............
तुम्हे समझाया हजार बार
क्या पढ़ते नही अखबार !
शहर में ”गैंग” चल रहे है इनके
खिड़की के शीशे मत खोलना
कहीं यं गले की चेन न कर ले पार !
गाडियों की भीड़ से बचती बचाती
गिड़गिड़ाती रही वह बार-बार
तब तक लाल बत्ती हरी हो गई
और हम हो गये चौराहे के पार !
किन्तु मन में था  द्वद्व
और अनजाना सा भार

                    डॉ मंजुश्री गुप्ता


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